संपादन का अर्थ और संपादन के प्रमुख सिद्धांत क्या हैं? | What is meaning and main principles of editing?

संपादन का क्या अर्थ है?

सम्पादन के आधारभूत सिद्धान्त ‘सम्पादन’ शब्द का अर्थ है- ठीक करना / प्रकाशित करना। यह अंग्रेजी शब्द एडिट (Edit) का हिन्दी पर्याय है। Editing का अर्थ है To prepare a piece of writing, To select writing of others for Publi cation अर्थात् किसी लिखित विषय को तैयार करना, अन्य की रचना को प्रकाशन हेतु चयन करना ।

 जन संचार के क्षेत्र में सम्पादन का महत्त्व परम्परागत है। लोकनाट्य- रामलीला, नौटंकी व नुक्कड़ नाटक में सूत्रधार, निर्देशक सम्पादन कर्म निभाते थे और उन्हें प्रस्तुति योग्य बनाते थे । आधुनिक युग में जनसंचार माध्यम के क्षेत्र में आशातीत विकास हुआ है। समाचार-पत्र, पत्रिकाएं, रेडियो, टेलीविजन, फिल्म आदि में भी सम्पादन का विशिष्ट महत्त्व है। समाचार-पत्र व पत्रिकाओं में सामग्री चाहे किसी प्रकार की क्यों न हो इसे काटने, छांटने, परिष्कृत करने की आवश्यकता होती है। वास्तव में यह पत्र का कलेवर शोभायुक्त बनाने की कला है। इसमें हर व्यक्ति पारंगत नहीं होता, किन्तु प्रशिक्षण एवं अनुभव के बल पर विविध प्रकार की सामग्री का सम्पादक, सहायक सम्पादक, उप-सम्पादक सम्पादन कार्य ही तो करते हैं।

छोटे समाचार-पत्रों में यह दायित्व एक या दो आदमी करते हैं जबकि राष्ट्रीय स्तर के पत्रों में यह दायित्व सम्पादकों की टीम पूरा करती है। पत्रिकाओं में भी प्रधान सम्पादक व सम्पादन मण्डल की भूमिकाएं होती हैं। सम्पादन का सरोकार केवल समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं तक ही सीमित है। ऐसी बात नहीं है। आप सोचते होंगे कि दूरदर्शन, फिल्म एवं आकाशवाणी जैसे विद्युतीय जनसंचार माध्यमों में सम्पार्दैन कहां होगा? आप दूरदर्शन पर प्रसारित समाचारों के अन्त में देख सकते हैं कि किस व्यक्ति ने समाचारों का सम्पादन किया है। फीचर एवं कलात्मक फिल्मों में भी सम्पादक की अहम् भूमिका होती, है। आकाशवाणी पर रचना को सुनने योग्य बनाने में ध्वन्यात्मक सम्पादन जरूरी है। 

जनसंचार के इन सशक्त माध्यमों में सम्पादन की आवश्यकता इसलिए होती है कि इससे प्रभावात्मकता बढ़ती है, मांग बढ़ती है। समाचार-पत्र व पत्रिकाओं की विक्रय-शक्ति भी बढ़ती है। सम्पादन से विषय एवं लेखन शैली गरिमामयी बन जाती है।

 सवाल यह है कि सम्पादन कैसे किया जाये अर्थात् वह कौन से मापदण्ड या सिद्धान्त हैं जो सम्पादन करते समय प्रयोग किये जायें? वास्तविकता यह है कि इस संदर्भ में कोई निश्चित मत नहीं है। हर रचना के सम्पादन का स्वरूप एवं शैली भिन्न-भिन्न होती है। उदाहरणतः समाचार सम्पादन का स्वरूप एवं शैली कहानी या धारावाहिक रचनाओं के स्वरूप एवं शैली से नितान्त भिन्न होती है। समाचार-पत्रों का सम्पादन मासिक पत्रिकाओं के सम्पादन से भिन्न हैं यदि मासिक पत्रिका साहित्यिक है तो उसका सम्पादन स्वास्थ्य पत्रिका जैसा कैसे हो सकता है। समाचार-पत्र की प्रकृति ही मासिक पत्रिका से बिल्कुल भिन्न है। स्पष्ट शब्दों में संचार माध्यम कोई भी हो, हर माध्यम के स्वरूप और शैली के अनुसार सम्पादन में भिन्नता होती है। 

सम्पादक और सम्पादन मण्डल सम्पादन को प्रभावित करने वाले हैं चूंकि वे उसके जनक हैं। सम्पादक एक विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न, मेध् ग़वी एवं उद्बुद्ध नागरिक होता है। वह अपने विषय पर दृष्टि केन्द्रित रखता है, विषय का ज्ञाता होता है। वह गरिमायुक्त व्यक्तित्व का धनी होता है। कई दशक पूर्व समाचार-पत्र व्यक्ति के प्रभाव या प्रसिद्धि के कारण बिक जाते थे। महात्मा गांधी जी के पत्र – ‘हरिजन’ व ‘यंग इण्डिया’ इसी कारण लोकप्रिय थे। आजकल स्थिति थोड़ी भिन्न है। यद्यपि पत्र-पत्रिका के सम्पादक का व्यक्तित्व सम्पादन में रंग भर देता है, किन्तु अब पत्र-जगत एक व्यवसाय है।

पत्रों की दुनियां में हर रोज कई पत्र जन्म ले रहे हैं। उनमें एक प्रतियोगिता व स्पर्द्धा है। हर कोई प्रतियोगिता से निपटने के लिए प्रयासरत है। रचनाओं के सम्पादन नूतनता का प्रयोग करके इस प्रतियोगिता में सफल होने की चेष्टा पूरी में हो सकती है। आज सम्पादन का कर्म-कौशल निभाने में प्रधान सम्पादक का सहयोग करने के लिए सहायक सम्पादक, समाचार सम्पादक, उप–सम्पादक, प्रूफ संशोधन आदि होते हैं। ये सभी लोग एक

टीम के सदस्य के रूप में काम करते हैं और अनवरत परिश्रम करते हैं। इन्हीं के सतत् प्रयासों का परिणाम है कि कोई पत्र व पत्रिका अधिक प्रतिष्ठा पाती है। पत्र के कुशल सम्पादन में केवल सम्पादक या उप-सम्पादक की ही अहम् भूमिका होती हो, ऐसी बात नहीं है। पत्र को प्रतिष्ठित करने में सभी की बराबर की भागीदारी होती है। एक छायाकार ( फोटोग्राफर) भी महत्त्वपूर्ण है और एक उप-सम्पादक भी । प्रधान सम्पादक अच्छे सम्पादन के लिए उत्तरदायी है। इस दायित्व की पूर्ति के लिए विभिन्न विषयों के मर्मज्ञ एवं विद्वान उप-सम्पादक निरन्तर क्रियारत होते हैं। इस कार्य में संस्थान के अन्य लोग भी निरन्तर जुटे रहते हैं। 

समाचार के सम्पादन सिद्धान्त 

समाचार जीवन के सभी आयामों को प्रभावित करने वाले होते हैं। समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, दूरदर्शन, रेडियो में समाचार का विशेष महत्त्व है। चहुं दिशा का बोधक ‘न्यूज’ शब्द सब दिशाओं की घटना है। यह अंग्रेजी के ‘न्यू’ शब्द से बना है, इसका पर्याय संस्कृत में नव भी है। हैं ‘कोई ऐसी घटना जिसमें सभी की अभिरुचि ही समाचार हैं।’ एक अच्छा सम्पादक जिसे प्रकाशित करना चाहे वह समाचार है। समाचार हमें जानकारी देते हैं, उनमें नवीनता होती है। न्यूज स्टोरी अथवा समाचार कथा हमें उद्वेलित भी करती है। समाचार में यह गुणवत्ता है कि वह समसामयिक बोध कराने वाले हैं। जीवन का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिस पर समाचार न हो। 

समाचार संस्थान में भिन्न-भिन्न स्त्रोतों से समाचार आते हैं। सम्पादन मण्डल के लोग बड़ी सतर्कता के साथ महत्त्व के अनुरूप समाचार चयन करते हैं। यह कोई आसाधारण कार्य नहीं है। ज्वलन्त समाचारों को प्राथमिकता देना आवश्यक है। समाचार संग्रहण और संकलन करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि किसी भी क्षेत्र को अछूता न रखा जाये। समाचार-संग्रहण करने के उपरान्त सम्पादन का क दायित्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ होता है। समाचार – सम्पादन करते समय समाचार के महत्त्व देखते हुए पृष्ठ में उचित स्थान देने का विवेक प्रयोग में लाना आवश्यक है। सम्पादक वर्ग को किसी समाचार- प्रस्तुति से पूर्व

यह देख लेना चाहिए कि क्या उक्त समाचार समय के अनुरूप ह अर्थात् क्या उसकी प्रासंगकिता है या क्या समाचार का समय की दृष्टि से महत्त्व है? जिस स्थान का यह समाचार है क्या वह अब महत्त्वपूर्ण है? समाचार का निजी महत्त्व क्या है? क्या समाचार मात्र सूचना है अथवा समाज को प्रभावित करने वाला है। यदि इन सबके प्रति सम्पादक मण्डल आश्वस्त है तो यह देखने की चेष्टा जरूरी है कि समाचारों को संक्षिप्त, सारगर्भित शीर्षक दिया जाये। समाचार के विस्तार पर भी ध्यान देना चाहिए कि कहीं यह अनावश्यक तो नहीं है अथवा क्या विस्तार देना आवश्यक है। उप-सम्पादक व मुख्य ध्य उप-सम्पादक को समाचार के विषय में जिज्ञासापूर्ति कर लेनी चाहिए और समाचार में निहित क्या क्यों, कब, कहां, कैसे और किसने आदि को स्पष्ट कर लेना चाहिए।

यद्यपि उप-सम्पादक हर समाचार को बड़ी सतर्कता से सम्पादित करते हैं फिर भी समाचार सम्पादक तथा मुख्य उप-सम्पादक को समाचार पर सूक्ष्मता से दृष्टिपात करना चाहिए, क्योंकि समाचार प्रकाशन के उपरान्त कुछ भी नहीं हो सकता। बाद में तो भूल सुधार समाचार स्पष्टीकरण आदि जैसे कॉलम देने पड़ते हैं। सम्पादित प्रति का पूरा निरीक्षण करने के उपरान्त यह भी सोचना चाहिए कि क्या समाचार-पत्र के पृष्ठ पर समाचार महत्त्व के अनुरूप स्थान पा सका है। पृष्ठ की साज-सज्जा में सामग्री- प्रस्तुति कैसे करें यह भी आवश्यक है, क्योंकि सामग्री को सही ‘कटाव-छटाव से ही सज्जा आती है, आकर्षक रूप आता है। संक्षिप्त एवं रुचिकर समाचार ही देने चाहिए। 

सम्पादन करने वाले प्रभारी को यह जानना चाहिए कि समाचार का इन्द्रो अर्थात् आमुख प्रभावपूर्ण होना चाहिए। समाचार का मूलभाव का सारांश इन्ट्रो में सिमट आता है। अनुभवी और योग्य उप-सम्पादक ऐसा आमुख देते हैं कि समाचार का विस्तार पढ़ने से पूर्व ही पाठक की आतुरता पूरी हो जाती है। स्पष्ट है कि समाचार की प्रारम्भिक पंक्तियाँ में कुतूहलवृत्ति की तुष्टि हो जानी चाहिए। आमुख बनाते समय वाक्य छोटे होने चाहिए। आमुख (इन्ट्रो) समाचार की आत्मा है। कलात्मक, भावात्मक एवं बोधगम्य आमुख अवश्य प्रभाव डालते हैं। आमुख भावात्मक हो या विचारात्मक यह सब समाचार की प्रकृति पर निर्भर है। यदि समाचार तथ्यात्मक है तो विचारात्मक आमुख अच्छा होता है जबकि समाचार की संवेदनशीलता एवं समाचार को उत्प्रेरक बनाने के लिए भावात्मक आमुख ठीक है। 

समाचार- पाण्डुलिपि बनाते समय यह ध्यान देने योग्य है कि अवतरण लम्बे न हों, वाक्य लम्बे न हों। समाचार के दोनों ओर थोड़ा हशिया हो ताकि प्रूफ संशोधन व समायोजन किया जा सके। यह ध्यान रखें कि एक अवतरण एक ही पृष्ठ में पूरा हो जाये। यदि कोई अवतरण (पैराग्राफ) दो पृष्ठों पर बिखर जाता है तो कठिनाई हो सकती है। सरल, सहज भाषा-शैली प्रयोग की जाये। वर्तनी की अशुद्धि नहीं होनी ‘चाहिए। कॉपी में संशोधन के चिन्ह साफ-साफ हों। समाचार में दिनांक एवं स्थान का विशेष महत्त्व है। ‘लीड’ का अभिप्राय है कि विशिष्ट-कोटि का समाचार प्रथम लीड और उससे कम महत्त्व का समाचार द्वितीय लीड होता है। किस समाचार को कौन-सा लीड दिया जाये यह सम्पादक पर निर्भर है। आम तौर पर पृष्ठ के दायीं ओर प्रथम लीड दिया जाता है।

 संक्षेप में, समाचार सम्पादन करते हुए आधारभूत सिद्धान्त यह है कि समाचार के हर पक्ष पर दृष्टि लानी चाहिए। समाचार का ताजापन जरूरी है। समाचारों के साथ उपयुक्त चित्र समाचार में सजीवता और प्रामाणिकता ला देते हैं। निष्पक्ष तरीके से या गुटबन्दी से हटकर समाचार में सत्यता, तथ्यात्मकता को उजागर करना चाहिए। नामोल्लेख करने में सतर्कता बरतनी चाहिए अन्यथा छवि धूमिल करने की गलती में अभियोग का सामना करना पड सकता है। समाचार सम्पादक को समाचार-बैविध्य द्वारा पत्र को रुचिकर एवं लोकप्रिय बनाना चाहिए। अन्त में कहा जा सकता है कि समाचार का सम्पादन अत्यन्त कठिन एवं श्रमसाध्य कार्य है। इसे पूरा करने के लिए प्रशिक्षण के साथ-साथ अभ्यास की आवश्यकता है। अनुभव अर्थात् अभ्यास द्वारा समाचार सम्पादक संवाददाताओं द्वारा भेजे गए समाचार (कच्चे माल) को निखार, संवार कर कलात्मक रूप देते हैं जिससे पत्र का पृष्ठ स्पन्दनशील हो उठता है ।

समाचार-पत्र में समाचारेतर रचनाओं का सम्पादन 

समाचार-पत्र में समाचार को विशषे महत्त्व दिया जाता है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि समाचार-पत्र में समाचार के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। यदि समाचार-पत्र को ध्यानपूर्वक देखा जाए तो उसमें पृष्ठों का आबंटन इस प्रकार से किया जाता है कि साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं खेल प्रवृत्तियों को प्रतिपादित किया जा सके। कुछ समाचार-पत्र तो इनसे सम्बन्धित विशेष संस्करण प्रकाशित करते हैं। कुछ सप्ताह के दिनों को संस्करणों में विभाजित कर यह कार्य सम्पन्न करते हैं। समाचार-पत्र में इतना ही नहीं बाल-जगत, युवा-जगत, महिला-जगत, प्रौढ़-जगत आदि की अभिरुचियों, समस्याओं को ध्यान में रखकर भी पृष्ठ निर्धारित किये जाते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि समाचार-पत्र में सिर्फ समाचार ही नहीं, समाचारेतर सामग्री भी पर्याप्त मात्रा में होती है। 

पत्रों में समाचारों के अतिरिक्त अन्य सामग्री यथा- सम्पादकीय, अग्रलेख, पाठकों की चिट्ठी (पाठकों द्वारा लिखित सम्पादकीय) साहित्यिक रचनाएं, जीवनोपयोगी रचनाएं, सामाजिक, सांस्कृतिक पर्व उत्सव सम्बन्धी विषय, सामयिक समस्याओं सम्बन्धी सामग्री होती है। 

समाचारों का सम्पादन समाचार की नब्ज को जानने वाला हर सम्पादक कर सकता है, परन्तु सम्पादकीय-लेखन के लिए योग्यता निष्णात, विद्वता, जागरूकता, सामयिक युग बोध होना जरूरी है। वह जिस विषय का सम्पादन कर रहा है उसे उस विषय का मर्मज्ञ होना चाहिए। 

पत्रिकाओं के सम्पादन सिद्धान्त 

सम्पादक वर्ग का दायित्व हर स्थिति-विशेष पर विशिष्ट प्रकार का होता है। समाचार-पत्र में विषयों की विविधता होने पर भी मेरुदण्ड तो समाचार ही कहलाता है। स्पष्ट है कि सम्पादक की भाषा-शैली, सोच-विचार के केन्द्र में समाचार रहते हैं, किन्तु पत्रिकाओं में कार्यक्षेत्र के अनुरूप सम्पादक की सोच बन जाती है, वह विषयानुरूप भाषा-शैली प्रयोग में लाता है।

साहित्यिक पत्रिका में साहित्यिक संचेतना की आवश्यकता होती है जबकि खेलकूद (क्रीडा) पत्रिका में भिन्न संचेतना होती है। पत्रिका का कलेवर चाहे साप्ताहिक हो या पाक्षिक, मासिक हो या अर्द्धवार्षिक या वार्षिक- हर पत्रिका के सम्पादन में अत्यन्त जल्दी नहीं होती अर्थात् वहां सम्पादन के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। मासिक-पत्र व अन्य पत्रिकाएं विषय-वैविध्य, साज-सज्जा से प्रत्युत्पन्न आकर्षण के कारण ही लोकप्रिय होती हैं। 

पत्रिकाओं के संदर्भ में सम्पादन का पहला सूत्र तो यही है कि सम्पादक को पत्रिका को उत्कृष्ट बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। पत्रिकाएं केवल सूचना देने का माध्यम नहीं हैं। सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक विकास को लक्ष्य मानकर पत्रिकाएं समाज की सेवा कर रही हैं। वास्तव में इन पत्रिकाओं के सम्पादक का मूल लक्ष्य तो समाज के हर नागरिक का सर्वांगीण विकास है। आजकल समाचार-पत्र भी गर्मागर्म खबरों के लिए नहीं बिकते। उनका पाठक · भी कुछ अन्य चाहता है।

यही कारण है कि समाचार-पत्र के पृष्ठ विशेष पर यह दिवसीय आबंटन के आधार पर जीवनोपयोगी, समाजोपयोगी सामग्री देने की परम्परा है, परन्तु पत्रों में कम समयावसर होने के कारण इन विषयों पर विशद् निरूपण नहीं हो पाता । पत्रिकाओं के सम्पादन में गाम्भीर्य की आवश्यकता होती है। सम्पादक को जिस विषय की पत्रिका का सम्पादन करना है, उसे उस विषय का मर्मज्ञ होना चाहिए। उसे अपने शैली-चातुर्य से पत्रिका को रंगोली की तरह सजाना है। उसे यह भी समझना चाहिए कि कई बार अत्यन्त वैचारिक सामग्री पाठक नहीं समझ पाते। उसे अपनी सम्पादकीय टिप्पणी से विशिष्ट कोटि की रचना का मूलांश स्पष्ट करना चाहिए । 

सम्पादक को पत्रिका में सरसता और आकर्षण भरना आना चाहिए। विषय-प्रतिपादन में सन्तुलन बनाने पर बल देना चाहिए। उस पत्रिका में सम्पादकीय लिखते समय विषय के ज्वलन्त रूप और समसमायिक बोध को ध्यान में रचना होगा। सामयिक अर्थात् युग-बोध कराने वाले समकालीन समस्याओं व अन्य ज्वलन्त विषयों पर आधारित सम्पादकीय अधिक रुचिकर माने जाते हैं। पाठक वर्ग की राय, पत्र आदि की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।

विषय सम्बन्धी समाचारों का भी पन्ना रखना अच्छा होता है जैसे साहित्यिक पत्रिका में साहित्यिक समाचार देते समय साहित्यिक आयोजन, साहित्यिक पुरस्कार, किसी साहित्यकार का निधन, नयी पुस्तकों का विमोचन आदि सम्बन्धी समाचार हो सकते हैं। इसी तरह वाणिज्य, विज्ञान, महिलापयोगी, बालजगत आदि सम्बन्धी पत्रिकाओं में भी समाचार दिए जाते हैं। 

पत्रिका के सम्पादन में कर्म-कौशल, योग्यता, वैचारिक प्रखरता जरूरी है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि पत्रिका के आदि से लेकर अन्त तक एक कसावट और तारतम्यता होनी जरूरी है। सम्पादक की हर रचना को बड़ी गम्भीरता से पढ़ना चाहिए। यदि वह उसे पठनीय समझे तभी पत्रिका में स्थान देना चाहिए। वैचारिक परिपक्वता और सरसता के अभाव में रचनाएं शीघ्र दम तोड़ देती है। पत्रिका के पृष्ठों को ही प्रकाशित करना सम्पादक का लक्ष्य नहीं है।

लब्ध-प्रतिष्ठ अर्थात् सुप्रसिद्ध लेखों के अतिरिक्त नवोदित रचनाकारों को भी प्रोत्साहन मिलना चाहिए। उन्हें इसी दिशा में प्रेरित करने के लिए कहानी लेखन प्रतियोगिता, कविता या लेख, निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन भी किया जा सकता है। सम्पादक को ऐसा प्रयास करना चाहिए कि पाठक रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व से अवगत हो सकें। 

सम्पादक को ऐसी नीति अपनानी चाहिए कि पत्रिका के अलग-अलग अंकों में नूतनता का बोध हो । सम्पादक नवीन रचना-पद्धति से पाठकों का मन जीत लेता है। पत्रिका की पृष्ठ संख्या हर अंक में थोड़ी-बहुत कम ज्यादा हो सकती है, पर उसमें ज्यादा अन्तर नहीं लाया जा सकता। विशेषांक में बात दूसरी है। आदर्श सम्पादक अपने सद्प्रयासों से पत्रिका में प्राण फूंक देता है। वह भावना, विचार, भाषा सबको सुन्दर बनाने का शिल्पकार है। पत्रिकाओं का मूल लक्ष्य मनोरंजन है, किन्तु यह कोरा मनोरंजन नहीं होता इसमें जीवन का उत्कर्ष भी निहित होता है। 

कई पत्रिकाएं समाज के सच्चे निर्देशन में सहायक हैं। अच्छा सम्पादक वही है जो पत्रिकाओं को सरस बनाने के साथ-साथ मूल लक्ष्य को भी अंगीकार करे। कई बार रचनाओं में वर्ण्यसामग्री उलझाव भरी होती है जो पाठक को भी विभ्रम में डाल देती है। लेखों की लम्बी-चौड़ी भूमिका अथवा कहानी में लम्बे-चौड़े कथोपकथन रचना के तारतम्य पर आघात पहुंचाते हैं। स्पष्ट शब्दों में सम्पादक में लेखकीय गुण होने चाहिएं। उसे सृजन के विविध चरणों का अभिज्ञान होगा तभी वह किसी रचना का भली प्रकार सम्पादन कर सकेगा। 

पत्रिका में विविध स्तम्भ होते हैं। हर स्तम्भ का अपना महत्त्व है। कई बार समयाभाव, स्थानाभाव में सम्पादक किसी स्तम्भ से पूरा निर्णय नहीं करते। स्तम्भ में पनपी कोई भी कमी पाठकों को भी खलती है। योग्य सम्पादक अपनी पत्रिका में हर प्रकार से नूतनता रखते हैं और पत्रिका को पठनीय, ज्ञानवर्द्धक, रुचिकर सामग्री से मण्डित करते हैं। कतिपय लेखक अपनी रचना को यथारूप में ही प्रकाशित कराना चाहते हैं। उनकी रचना में कोई संशोधन अनुमति लेकर ही किया जा सकता है। योग्य सम्पादक अपनी पत्रिका को उज्ज्वल बनाने में जुटे रहते हैं, वे व्यक्ति को महत्त्व नहीं देते, रचनाओं को महत्त्व देते हैं। 

अतः प्रसिद्ध व्यक्ति की रचना में यदि संशोधन अपेक्षित हों, तो वे संशोधन के बिना नहीं छापते । अच्छा सम्पादक वही है जो पत्रिका की नीति के अनुरूप विभिन्न और नयी विषय – सामग्री जुटाने का प्रयास करे । भाषा-शैली का चयन अत्यन्त विचारणीय पक्ष है। आमतौर पर सामान्य बोलचाल की सरल भाषा ही उपयुक्त होती है परन्तु सम्पादक को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह भाषा का ज्ञान कराने वाला आचार्य भी है। सामान्य पाठक रचनाओं के माध्यम से नए शब्द सीखते हैं और परिमार्जित भाषा का प्रयोग करना सीखते हैं। 

यद्यपि साहित्यिक पत्रिका में भाषा-शैली का स्तर समुन्नत होता है, किन्तु अन्य पत्रिकाओं में तथा साहित्यिक पत्रिका में भी भाषा का आडम्बर युक्त रूप नहीं होना चाहिए। सामान्य पाठक की पहुंच से बाहर भाषा न हो। वह इतनी बोझिल न हो कि पाठक समझ ही न सके । पत्रिकाओं के सम्पादक को प्रतिभा सम्पन्न, जागरूक एवं परिश्रमी होना पड़ता है। अनुभूतिशीलता, वैचारिकता, रागात्मक अभिव्यक्ति, सृजनात्मक, नवीनता, शिल्पगत साज-सज्जा, सामयिकता, समाजोपयोगिता आदि द्वारा अच्छी पत्रिकाओं का सम्पादन किया जा सकता है।

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